रोज़ा



रोज़ा

रोज़े के बारे में संक्षिप्त विवरण
रोज़ा का अर्थ : अल्लाह की उपासना की नीयत से फ़ज्र (उषा) के उदय होने से सूर्यास्त तक खाना, पानी और संभोग से रूक जाना।
 
मुसलमान लोग हर वर्ष रमज़ान के महीने का रोज़ा रखते हैं। यह हिज्री वर्ष का नवाँ महीना है, जो महीनों की गणना में चाँद पर निर्भर करता है। चाँद का महीना या तो उन्तीस दिनों का होता है या तीस दिनों का।
रोज़ा इस्लाम के स्तंभों में से एक स्तंभ है। पैगंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
(بُنِيَ الْإِسْلَامُ عَلَى خَمْسٍ: شَهَادَةِ أَنْ لَا إِلَهَ إِلَّا اللَّهُ وَأَنَّ مُحَمَّدًا رَسُولُ اللَّهِ، وَإِقَامِ الصَّلَاةِ، وَإِيتَاءِ الزَّكَاةِ، وَالْحَجِّ، وَصَوْمِ رَمَضَانَ).
"इस्लाम की बुनियाद पाँच चीज़ों पर स्थापित है : ला-इलाहा इल्लल्लाह और मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह की गवाही देना, नमाज़ स्थापित करना, ज़कात देना, हज्ज और रमज़ान के रोज़े रख़ना।"
प्रत्येक व्यस्क व बुद्धिमान मुसलमान पर, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, रोज़ा रखना अनिवार्य है।
मुसाफिर, वह बीमार व्यक्ति जिसके लिए रोज़ा रखना कष्ट व कठिनाई का कारण है, गर्भवती महिला, दूध पिलानेवाली महिला तथा उस वयोवृद्धि के लिए जो रोज़ा रखने में सक्षम नहीं है, रोज़ा तोड़ना जायज़ है।
जबकि मासिक धर्म वाली महिला, प्रसूता महिलाओं और हर वह व्यक्ति जिसके स्वास्थ्य के लिए रोज़ा खतरनाक है, रोज़ा तोड़ना अनिवार्य है।
जिस व्यक्ति ने किसी कारण से रोज़ा तोड़ दिया है, वह रमज़ान के बाद उतने दिनों का रोज़ा रखेगा जितने दिनों का रोज़ा उसने तोड़ दिया था अगर वह सक्षम है, यदि वह सक्षम नहीं है तो हर उस दिन के बदले जिसका उसने रोज़ तोड़ दिया है, एक मिसकीन (निर्धन) को खाना खिलाएगा।

रोज़ा सभी धर्मों में धर्मसंगत था
अल्लाह सर्वशक्तिमान ने हमें सूचना दिया है कि रोज़ा हमसे पूर्व लोगों पर भी अनिवार्य था। अल्लाह तआला ने फरमाया :
{يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى الَّذِينَ مِن قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ} [البقرة: 183].
"ऐ ईमान वालो! तुम पर रोज़े रखना अनिवार्य किया गया है जिस प्रकार तुम से पूर्व लोगों पर अनिवार्य किया गया था, ताकि तुम सयंम और भय अनुभव करो।" (सूरतुल बक़राः 183).
जब अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना आए, तो आप ने यहूदियों को आशूरा के दिन का रोज़ा रखते हुए पाया। इसके बारे में उन से पूछा गया तो उन्हों ने कहा : यही वही दिन है जिसमें अल्लाह तआला ने मूसा अलैहिस्सलाम और बनी इस्राइल को फिर्औन पर विजय प्रदान किया। अतः हम उसके सम्मान के तौर पर उसका रोज़ा रखते हैं। इस पर आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "हम मूसा अलैहिस्सलाम (की पैरवी) के तुम से अधिक योग्य और हक़दार है। फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस दिन रोज़ा रखने का आदेश दिया।"
इस दिन के रोज़े की विधि के बारे में हमें जो जानकारी है यह है कि वह मुसलमानों के रोज़ा रखने के समान : फज्र (उषा) के उदय होने से सूर्यास्त तक होता था। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "हमारे रोज़े और अहले किताब (यानी यहूदियों और ईसाइयों) के रोज़े के बीच सेहरी का खना है।" अर्थात हमारे और उनके रोज़ा रखने के बीच अंतर सेहरी का खाना है, क्योंकि वे लोग सेहरी नहीं करते हैं और हमारे लिए सेहरी करना मुस्तहब (वांछनीय) है।
परंतु आज हम वर्तमान तौरात और इंजील में रोज़ा की आयतें नहीं पाते हैं! और यहूदियों व ईसाइयों के दलों के बीच रोज़ा रखने के तरीक़े और उसके समय के बारे में परस्पर मतभेद पाया जाता है।
इसी तरह गैर-आसमानी धर्मों जैसे हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और फैरो धर्म (अर्थात् प्राचीन मिस्र के धर्म) में भी रोज़े का अस्तित्व मिलता है।

क़ुरआन में रोज़े की आयतें
अल्लाह तआला ने फरमाया:
{ يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى الَّذِينَ مِن قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ % أَيَّامًا مَّعْدُودَاتٍ فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوْ عَلَىٰ سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِّنْ أَيَّامٍ أُخَرَ وَعَلَى الَّذِينَ يُطِيقُونَهُ فِدْيَةٌ طَعَامُ مِسْكِينٍ فَمَن تَطَوَّعَ خَيْرًا فَهُوَ خَيْرٌ لَّهُ وَأَن تَصُومُوا خَيْرٌ لَّكُمْ إِن كُنتُمْ تَعْلَمُونَ % شَهْرُ رَمَضَانَ الَّذِي أُنزِلَ فِيهِ الْقُرْآنُ هُدًى لِّلنَّاسِ وَبَيِّنَاتٍ مِّنَ الْهُدَىٰ وَالْفُرْقَانِ فَمَن شَهِدَ مِنكُمُ الشَّهْرَ فَلْيَصُمْهُ وَمَن كَانَ مَرِيضًا أَوْ عَلَىٰ سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِّنْ أَيَّامٍ أُخَرَ يُرِيدُ اللَّهُ بِكُمُ الْيُسْرَ وَلَا يُرِيدُ بِكُمُ الْعُسْرَ وَلِتُكْمِلُوا الْعِدَّةَ وَلِتُكَبِّرُوا اللَّهَ عَلَىٰ مَا هَدَاكُمْ وَلَعَلَّكُمْ تَشْكُرُونَ} [البقرة: 183-185].
"ऐ ईमान वालो! तुम पर रोज़े रखना अनिवार्य किया गया है जिस प्रकार तुम से पूर्व लोगों पर अनिवार्य किया गया था, ताकि तुम संयम और भय अनुभव करो। (ये रोज़े) गिनती के कुछ दिनों के लिए हैं। तो तुम में से जो बीमार हो या यात्रा पर हो तो वह दूसरे दिनों में (तोड़े हुए रोज़ों की) गिनती पूरी करे, और जो लोग इसकी ताक़त रखते हैं (फिर भी रोज़ा न रखें) तो उनके ऊपर बदले में एक निर्धन को खाना खिलाना है। फिर जो व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक अतिरिक्त भलाई करे तो यह उसके लिए अच्छा है और तुम्हारे लिए रोज़ा रखना अधिक उत्तम है, यदि तुम जानते हो। रमज़ान का महीना वह है जिसमें क़ुरआन उतारा गया जो लोगों के लिए मार्गदर्शक है और जिसमें मार्गदर्शन की और सत्य तथा असत्य के बीच अन्तर की निशानियाँ हैं, अतः तुम में से जो व्यक्ति इस महीना को पाए उसे इसका रोज़ा रखना चाहिए। और जो बीमार हो या यात्रा पर हो तो वह दूसरे दिनों में उसकी गिनती पूरी करे, अल्लाह तआला तुम्हारे साथ आसानी चाहता है, तुम्हारे साथ कठिनाई नहीं चाहता है। और ताकि तुम (रोज़ों की) संख्या पूरी कर लो और अल्लाह ने जो तुम्हारा मार्गदर्शन किया है उस पर उसकी बड़ाई प्रकट करो और ताकि तुम कृतज्ञ बनो।" (सूरतुल बक़रा : 183 – 185).

आयतों की व्याख्या :
अल्लाह तआला मोमिनों को अपने कथन "ऐ ईमान लानेवालो!" के द्वारा संबोधित कर रहा है ताकि उनके दिलों को जगाए और उनके ध्यान को आकर्षित करे और उन्हें उस चीज़ के महत्व पर चेतावनी दे जिनका उन्हें आदेश देनेवाला है। मोमिनों को संबोधित करना इस बात का प्रमाण है कि रोज़ा केवल अल्लाह और उसके पैगंबर में विश्वास रखनेवाले से ही स्वीकार किए जएगा, जिस तरह कि गैर-मुस्लिम को रोज़े का हुक्म उसके इस्लाम में प्रवेष करने के बाद ही दिया जाता है।
"तुम पर रोज़े रखना अनिवार्य किया गया है।" अर्थात तुम्हारे ऊपर रोज़ा रखना फर्ज़ किया गया है। अतः वह वाजिब (अनिवार्य) है जिसका करनेवाला प्रतिफल दिया जायेगा और उसके छोड़नेवाले को दंडित किया जाएगा।
"जिस प्रकार तुम से पूर्व लोगों पर अनिवार्य किया गया था" अर्थात तुमसे पूर्व समुदायों पर भी रोज़ा रखना अनिवार्य था।
"ताकि तुम संयम और भय अनुभव करो।" अर्थात रोज़ा रखना अल्लाह सर्व शक्तिमान का तक़्वा अपनाने में मुसलमान की मदद करता है, तक़्वा यह है कि मुसलमान अपने और आखिरत में अल्लाह के अज़ाब के बीच, उसके आदेशों का पालन कर और उसके निषेधों को त्याग कर, रूकावट और रोकथाम पैदा करले।
"गिनती के कुछ दिन हैं।" अर्थात रोज़ा कुछ गिने हुए दिनों में है और वह रमज़ान का महीना है जैसा कि अगली आयत में आएगा।
"तुम में से जो बीमार हो या यात्रा पर हो तो वह दूसरे दिनों में (तोड़े हुए रोज़ों की) गिनती पूरी करे।" अर्थात बीमार आदमी जो ऐसी बीमारी से पीड़ित है जिसके साथ रोज़ा रखना कष्टदायक है, या वह मुसाफिर है : तो उसके लिए रोज़ा तोड़ने की रूख्सत है। और वह रमज़ान के बाद इन दिनों की क़ज़ा करेगा।
"और जो लोग इसकी ताक़त रखते हैं तो उनके ऊपर बदले में एक निर्धन को खाना खिलाना है। फिर जो व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक अतिरिक्त नेकी करे तो यह उसके लिए अच्छा है और यह कि तुम्हारे लिए रोज़ा रखना अधिक उत्तम है, यदि तुम जानते हो।"  अर्थात जो लोग रोज़ा रखने में सक्षम हैं, लेकिन वे रोज़ा नहीं रखना चाहते हैं; तो उनके ऊपर हर दिन के बदले एक मिसकीन (निर्धन) को खाना खिलाना अनिवार्य है। यदि वे खाना खिलाने में वृद्धि कर दें तो वह स्वेच्छापूर्वक है उसपर उन्हें प्रतिफल मिलेगा। तथा अल्लाह तआला मोमिनों को सचेत कर रहा है कि रोज़ा रखना उनके लिए बेहतर है; क्योंकि उसमें उसके आदेश का पालन करना, तक़्वा की प्राप्ति, और इसके अलावा अन्य लाभ हैं।
रोज़ा रखने और सदक़ा करने के बीच चयन करने का अधिकार शुरू इस्लाम में था। और यह बात सर्व ज्ञात है कि लोगों की स्थितियों को ध्यान में रखते हुए, इबादतें धीरे-धीरे अनिवार्य की गई हैं, फिर रोज़ा रखना एक फरीज़ा (कर्तव्य) हो गया, जैसाकि आनेवाली आयत में है।
"रमज़ान का महीना वह है जिसमें क़ुरआन उतारा गया जो लोगों के लिए मार्गदर्शक है और जिसमें मार्गदर्शन की और सत्य तथा असत्य के बीच अन्तर की निशानियाँ हैं।" यह आयत उन गिने-चुने दिनों का अभिप्राय निर्धारित करती है जिनका रोज़ा रखना अनिवार्य है, और वे रमज़ान के महीने के दिन हैं, जो महीना एक महान विशेषता से उत्कृष्ट है, और वह यह कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर क़ुरआन के अवतरण का आरंभ इसी महीने में हुआ।
इस आयत में अल्लाह ने क़ुरआन की एक विशेषता यह बतलाई है कि उसमें लोगों के लिए मार्गदर्शन, तथा उस आदमी के लिए स्पष्ट प्रमाण हैं जो उन्हें समझता और उनमें मननचिंतन करता है, जो इस्लाम धर्म की प्रामाणिकता और पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सत्यता को दर्शाते हैं।
"तुम में से जो व्यक्ति इस महीना को पाए उसे उसका रोज़ा रखना चाहिए।" इस आयत में रोज़े की अनिवार्यता का उल्लेख किया गया है और चयन करने के विकल्प को निरस्त कर दिया गया है। अतः प्रत्येक बुद्धिमान व व्यस्क रोज़े पर सामर्थ्य रखनेवाले मुसलमान पर रोज़ा रखना अनिवार्य है, जब उसके ऊपर रमज़ान का महीना प्रवेश करे तो उसे उसका रोज़ा रखना चाहिए।
"और जो बीमार हो या यात्रा पर हो तो वह दूसरे दिनों में उसकी गिनती पूरी करे" जो आदमी मुसाफिर हो या बीमार हो जिसपर रोज़ा रखना कठिन हो तो उसके लिए रोज़ा तोड़ने की रूख्सत है, और वह रमज़ान के बाद क़ज़ा करेगा।
"अल्लाह तआला तुम्हारे साथ आसानी चाहता है, तुम्हारे साथ कठिनाई नहीं चाहता है।" मुसाफिर, बीमार और रोज़ा रखने में असक्षम व्यक्ति के लिए यह छूट, अल्लाहा तआला की ओर से अपने बन्दों पर दया, आसानी और उनके ऊपर से कष्ट को समाप्त करना है।
"और ताकि तुम (रोज़ों की) संख्या पूरी कर लो" अर्थात ताकि तुम छूटे हुए रोज़ों की क़ज़ा करके अपने ऊपर अनिवार्य रोज़ों की मात्रा पूरी कर लो और वह एक महीना है।
"और ताकि अल्लाह ने जो तुम्हारा मार्गदर्शन किया है उसपर उसकी बड़ाई प्रकट करो और ताकि तुम कृतज्ञ बनो।" अर्थात जब तुम रोज़े से फारिग हो जाओ और रोज़ा तोड़कर खुशी का अनुभव करो : तो तुम्हारे ऊपर अनिवार्य है कि "अल्लाहु अक्बर" कहकर अल्लाह का जिक्र करो, और यह ईद का प्रतीक है, तथा इबादत की तौफीक़ और उसकी ओर मार्गदर्शन की नेमत पर उसके प्रति आभार प्रकट करो।

रोज़े की वैधता की तत्वदर्शिता
अल्लाह ने रोज़े को कई हिकमतों की वजह से धर्मसंगत बनाया है, अल्लाह ने उनमें से सर्व प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण का उल्लेख रोज़े की पहली आयत में किया है। मननचिंतन करने से पता चलता है कि शेष हिकमतें उसी की ओर लौटती हैं और उसी के अंतर्गत आती हैं।
पहली हिकमत (तत्वदर्शिता) : अल्लाह सर्वशक्तिमान का तक़्वा (ईशभय और आत्म निग्रह) है : {لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ} "ताकि तुम संयम और भय अनुभव करो।"
तो रोज़े से तक़्वा कैसे प्राप्त होता है?
1-    रोज़ा एक उपासना है जिसका अल्लाह ने आदेश दिया है और उसे अपने बन्दों पर अनिवार्य किया है, और इस कर्तव्य का पालन करके अल्लाह की आज्ञाकारिता करना तक़्वा समझा जाएगा।
2-    रोज़ा मुसलमान को अल्लाह तआला के निरीक्षण और उससे डरने पर प्रशिक्षित करता है। और यही तक़्वा की वास्तविकता है। ऐक ऐसे समय में जबकि रोज़ेदार के रोज़े की प्रतिबद्धता की सच्चाई को अल्लाह के अलावा कोई नहीं जानता - क्योंकि आदमी रोज़ा रखने का दावा कर चुपके से खा पी सकता है - हम रोज़ेदार को पाते हैं कि वह अल्लाह की मना की हुई चीज़ को उसपर सामर्थ्य रखने के बावजूद छोड़ देता है, ऐसा क्यों? क्योंकि वह अल्लाह से डरता और उसका भय अनुभव करता है।
3-    रोज़ा मुसलमान व्यक्ति को अल्लाह के निकट करता है, और यह नेकी के सभी कृत्यों का मामला है, किंतु रोज़ा उसपर यह बढ़ोतरी रखता है कि मुसलमान रोज़ा की हालत में, एक लंबी अवधि (दिन भर) के लिए, दुनिया के सुख साधनों और उसकी चिंताओं से दूर रहता है; अतः वह अल्लाह से और अधिक क़रीब हो जाता है और कई प्रकार की उपासना कार्यों में व्यस्त होता है, तो इस प्रकार उसे तक़्वा प्राप्त होता है।
4-    रोज़े की अवधि में: मुसलमान अनुमेय खाना, पानी और संभोग से बचता है, और अल्लाह की आज्ञाकारिता के लिए उसे त्याग देता है, फिर उस समय के समाप्त होने के बाद उनकी ओर रुख करता है। इसके अंदर मुसलमान का अल्लाह के प्रति आत्मसमर्पण और उसकी शरीअत की प्रतिबद्धता पर प्रशिक्षण होता है। उस समय वह अति धर्मपरायणता और धर्मनिष्ठा का अनुभव करता है।

दूसरी हिकमत (तत्वदर्शिता) : रोज़े में मुसलमान का गुनाहों (अवज्ञाओं व अवहेलनाओं) के छोड़ने पर अभ्यास होता है। क्योंकि रमज़ान में वह एक अवधि के लिए अनुमेय चीज़ों को भी छोड़ देता है। इसके अंदर उसके लिए हराम और निषिद्ध चीज़ों को और अधिक प्राथमिकता के साथ छोड़ने पर अभ्यास है।
चुनाँचे रोज़े की हालत में मुसलमान हलाल चीज़ों के खाने से रूक जाता है। इस तरह वह अल्लाह के हराम किए हुए खानों जैसे मुर्दा और सुअर का मांस खाने को छोड़ने पर प्रशिक्षण हासिल करता है।
तथा वह हलाल पेय को पीने से बचता है, तो यह उसके लिए अल्लाह के हराम किए हुए पेय जैसे कि शराब पीने को छोड़ने पर प्रशिक्षण के समान है।
तथा वह अपनी पत्नी के साथ संभोग करने से भी बचता है जिसे अल्लाह ने उसके लिए जायज़ ठहराया है, तो इस तरह यह उसके लिए अल्लाह के वर्जित किए हुए व्यभिचार और उससे संबंधित चीज़ों को छोड़ने पर प्रशिक्षण के समान है।

तीसरी हिकमत (तत्वदर्शिता) : गरीबों और निर्घनों की हालतों और स्थितियों को याद दिलाना। मनुष्य अपने गरीब और दरिद्र भाइयों की स्थिति को महसूस करने से गाफ़िल हो सकता है, लेकिन जब वह भूख और प्यास का अनुभव करेगा तो वह उन्हें याद करेग, और उनकी मदद करने और उनके प्रति सहानुभूति और संवेदना प्रकट करने के लिए जल्दी करेगा। इसीलिए अल्लाह ने इस महीने के अंत में सदक़तुल फित्र धर्मसंगत किया है जो ईद के दिन गरीबों में वितरित किया जाता है; ताकि इस दिन कोई भी गरीब भूखा न रहे। चुनांचे आप मुसलमानों को पाएंगे कि वे अपने भाइयों को यह सदक़ा पेश करने में जल्दी करते हैं ; क्योंकि उन्हें उनकी हालतों का ज्ञान होता है।

चैथी हिकमत (तत्वदशिता) : नेकियाँ में वृद्धि करना। चुनाँचे रमज़ान का महीना उपासना के मौसमों में से एक मौसम है, जिनके द्वारा मुसलमान नेकियों में बढ़ोतरी प्राप्त कर लेता है। अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
"जिस ने ईमान के साथ और पुण्य की आशा रखते हुए रमज़ान का रोज़ा रखा, उसके पिछले (छोटे-छोटे) गुनाह क्षमा कर दिए जाएंगे।"
तथा फरमाया : "जिस ने ईमान के साथ और पुण्य की आशा रखते हुए रमज़ान का क़ियाम किया़, उसके पिछले (छोटे-छोटे) गुनाह क्षमा कर दिए जाएंगे।"
तथा उसके अंदर लैलतुल-क़द्र है जिसने उसके अंदर उपासना के कार्य किए तो उसमें उसका अज्र व सवाब वही उपासनाएं एक हज़ार महीनों में करने से बेहतर होगा। "लैलतुल क़द्र एक हज़ार महीने से बेहतर है।" (सूरतुल क़द्र : 3).

पाँचवी हिकमत (तत्वदर्शिता) : रोज़ा अल्लाह का उसकी नेमतों पर शुक्रिया अदा करने का एक साधन है, चुनाँचे जब इंसान एक थोड़े से समय के लिए भोजन, पेय और संभोग से रूक जाता है तो उसे उनका महत्व समझ में आता है; तो यह उसे उनके हक़ को धन्यवाद के द्वारा पूरा करने पर उभारता है।

छठी हिकमत (तत्वदर्शिता) : मुसलमान को शिष्टाचार का पालन करने और बुरे व्यवहारों से बचने का आदी बनाना; जब मुसलमान अनुमेय चीज़ों से बाज़ रहता है, तो बुरे व्यवहारों से तो उसे और अधिक प्राथमिकता के साथ बाज़ रहना चाहिए; क्योंकि वह हराम हैं, अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "और जब तुम में से किसी के रोज़ा का दिन हो तो वह अश्लील बातें न करे, शोर गुल न करे, अगर उसे कोई बुरा-भला कहे (गाली दे) या लड़ाई झगड़ा करे, तो उससे कह दे कि : मैं रोज़े से हूँ।"
शोर-गुल करने का अर्थ : गुस्से वगैरह के द्वारा अपनी आवाज़ को बुलंद करना है।

सातवीं हिकमत (तत्वदर्शिता) : रोज़ा इच्छाशक्ति को मज़बूत बनाता है और धैर्य तथा कठिन परिस्थितियों को सहन करने का अभ्यस्त बनाता है। चुनाँचे सब्र (धैर्य) के तीनों भेद इसमें एकत्रित हो जाते हैं : अल्लाह की आज्ञाकारिता पर धैर्य करना, उसकी अवज्ञाओं से सब्र करना (अर्थात उनसे उपेक्षा करना), तथा अल्लाह के दर्दनाक भाग्यों पर सब्र करना।

आठवीं हिकमत (तत्वदर्शिता) : रोज़े के अनेक स्वास्थ्य लाभ हैं जो रहस्य नहीं हैं, तथा हाल के अध्ययनों ने इसकी पुष्टि की है। चुनाँचे रोज़ा खाना खाने से संबंधित शरीर के प्रणालियों जैसे – पेट, आंतों, जिगर, पित्ताशय की थैली, और अग्न्याशय को राहत पहुँचाता है, तथा दिल और संचार प्रणाली पर बोझ को कम करता है, उच्च रक्तचाप के रोगियों को लाभ पहुँचाता है, रक्त में शर्करा और कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम कर देता है, विषाक्त पदार्थों से छुटकारा पाने में शरीर की मदद करता है, प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाता है, लसीकावत् कोशिकाओं के कार्यात्मक सूचकांक में सुधार करता है, और कोशिकाओं के नवीकरण में मदद करता है जो प्रभावी रूप से उम्र बढ़ने (एजिंग) की प्रक्रिया को विलंब करने में योगदान देता है और लत की समस्याओं पर काबू पाने में मदद करता है।
इसी तरह रोज़ा कुछ बीमारियों, विशेष रूप से पाचन रोगों के इलाज के लिए एक प्रभावी तरीका है।

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