शाबान के दूसरे अर्ध भाग में रमज़ान के छूटे हुए रोज़ों की क़ज़ा करने में कोई आपत्ति की बात नहीं है
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित है कि आप ने फरमाया : "जब आधा शाबान हो जाये तो रोज़ा न रखो।" इसे अबू दाऊद (हदीस संख्या : 3237), तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 738) और इब्ने माजा (हदीस संख्या : 1651) ने रिवायत किया है और अल्बानी ने सहीह तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 590) में सहीह कहा है।
इस निषेध से निम्न प्रकार के लोग अपवाद रखते हैं :
1- जिस व्यक्ति की रोज़ा रखने की आदत हो, जैसेकि वह आदमी जिसकी सोमवार और जुमेरात को रोज़ा रखने की आदत है, तो वह उन दोनों दिनों का रोज़ा रखेगा चाहे आधे शाबान के बाद ही क्यों न हो। इसका प्रमाण नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह कथन है : "रमज़ान से एक या दो दिन पहले रोज़ा न रखो, सिवाय उस आदमी के जो - इन दिनों में - कोई रोज़ा रखता था तो उसे चाहिए कि वह रोज़ा रखे।" इसे बुख़ारी (हदीस संख्या : 1914) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 1082) ने रिवायत किया है।
2- जिस आदमी ने आधे शाबान से पहले रोज़ा रखना शुरू किया, और आधे शाबान के बाद के रोज़े को उसके पहले के रोज़े से मिला दिया। तो ऐसा रोज़ा भी निषेध में शामिल नहीं है।
इसका प्रमाण आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा का यह कथन है : "अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पूरे शाबान का रोज़ा रखते थे, आप कुछ दिनों को छोड़कर पूरे शाबान का रोज़ा रखते थे।" इसे बुखारी (हदीस संख्या : 1970) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 1156) ने रिवायत किया है और हदीस के शब्द मुस्लिम के हैं।
इमाम नववी रहिमहुल्लाह कहते हैं : आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा के कथन ("अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पूरे शाबान का रोज़ा रखते थे, आप कुछ दिनों को छोड़कर पूरे शाबान का रोज़ा रखते थे।") में दूसरा वाक्य, पहले वाक्य की व्याख्या है, और उनके कथन "पूरे शाबान" की व्याख्या "अक्सर शाबान" है।
यह हदीस आधे शाबान के बाद रोज़ा रखने के जायज़ होने पर दलालत करती है, लेकिन उस आदमी के लिये जो उसे आधे शाबान से पहले से मिलाये।
3- तथा इस निषेध से वह व्यक्ति भी अपवाद रखता है जो रमज़ान की क़ज़ा का रोज़ा रखता है।
इमाम नववी रहिमहुल्लाह ने ‘‘अल-मजमूअ्’’ (6/399) में फरमाया:
हमारे साथियों का कहना है कि : बिना किसी मतभेद के 'संदेह के दिन' रमज़ान का रोज़ो रखना शुद्ध नहीं है . . . यदि वह उस दिन क़ज़ा का या नज़्रर (मन्नत) का या कफ्फारा का रोज़ा रखता है तो यह उसके लिए किफायत करेगा, क्योंकि जब उसके लिए उसमें ऐसा नफ्ल रोज़ा रखना जायज़ है जिसका कोई कारण हो तो फर्ज़ रोज़ा रखना उससे अधिक प्राथमिकता रखता है . . तथा इसलिए कि जब उसके ऊपर रमज़ान के केवल एक दिन की क़ज़ा बाक़ी है, तो वह उसके ऊपर निधारित हो गई ; क्योंकि उसकी कज़ा का समय संकीर्ण हो गया।’’ नववी की बात समाप्त हुई।
'संदेह का दिन' शाबान के महीने का तीसवाँ दिन है, जब तीस शाबाना की रात को बादल या धूल आदि चाँद देखने में रूकावट बन जाए। इसे संदेह का दिन इस लिए कहा गया है क्योंकि वह संदिग्ध है कि वह शाबान का अंतिम दिन है या रमज़ान का पहला दिन है।
उत्तर का सारांश यह है कि :
शाबान के दूसरे अर्ध भाग में रमज़ान के छूटे हुए रोज़े की क़ज़ा करनें में कोई आपत्ति की बात नहीं है, यह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के आधा शाबान हो जाने पर रोज़े के निषेध में शामिल नहीं है।
अतः आपका तीन दिनों का रोज़ा सही है, और अब आपके ऊपर बाक़ी बचे दिनों का रमज़ान शुरु होने से पहला रोज़ा रखना अनिवार्य है।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।
इस्लाम प्रश्न और उत्तर
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें